अपने कमरे में बैठा हूं, और
मेरी तन्हाई का साथ दे रहा है
सुलगती सिगरेट से निकलता धुंआ...
ज़िंदगी भी कहां-कहां से अर्थ ढूंढ लाती है
एक कश लगाने के बाद मैं
सिगरेट की दूसरे सिरे की राख देखता हूँ
आग, जिसे तपा नहीं पाती,
उसे राख कर देती है...
दूसरे कश के बाद
फिर नज़र जाती है
सिगरेट के राख वाले सिरे पर
थोड़े से पानी से भरे ऐश-ट्रे में
उसे झटका देकर गिरा देता हूँ...
“छस्स्स....” सी आवाज़, इस बात का एहसास कराती है,
कि उस राख में आग, अब भी बाक़ी थी
मर जाने से, ऐन पहले तक...
राख तो मैं पहले हो चुका हूँ.
याद आ रहा है, तेरा प्यार...
- मनीष कुमार यादव