किसी को क्या फर्क पड़ता है?

भरी सड़क पर खड़ा वो मदारी वाला
और उसके हाथों में
साथ चल रहे बन्दर के फंदे की डोर।

अपना सा लग रहा है मंज़र
मैं बेचैन हूँ
उस बन्दर की तरह
ईधर उधर खोज रहा हूँ
आज़ाद हो पाने की
उम्मीद की एक किरण भर।

मेरी मोहब्बत, वो फंदा है
जिससे लगी डोर
तुम्हारी यादों के कब्ज़े में है
जब जिधर चाहती हैं, नचाती हैं।

सिगरेट के धुंए से निकलता ज़हर
धडकनों में घोल रहा है ज़िन्दगी
और मैं जीने की कोशिश करता हुआ
मौत के इंतज़ार में हूँ ।

मदारी का खेल जारी है
गाड़ियां चली जा रही हैं
लोग पल दो पल रुक कर
फिर बढ़ जाते हैं आगे।

तुम खुद भी तो उसी भीड़ का हिस्सा हो...

किसी को क्या फर्क पड़ता है?


- मनीष कुमार यादव