रक़ीब की कश्ती संवरती तो हमें भी ऐतराज़ नहीं था, मगर,
आलम-ए-ग़म यूँ है कि जिधर वो बढ़ रहे हैं,
उधर ठोकरें बहुत हैं,
और इनसान... बहुत कम !
आलम-ए-ग़म यूँ है कि जिधर वो बढ़ रहे हैं,
उधर ठोकरें बहुत हैं,
और इनसान... बहुत कम !
- मनीष कुमार यादव