आगे... पता नहीं...

क्या मेरा यही कर्तव्य है
कि चुपचाप बैठा रहूँ अपनी झोपड़ी में
इंतज़ार करूँ, कि फ़ौजें आ धमके मेरे घर में

इंतजार करुँ, कि वो आएं, और
मेरे छत की पुआल बने
चुल्हा बनाई गई मेरी मड़ई का इंधन
उनकी मीट-भात-दारू की पार्टी को दान कर दूँ
मेरे बच्चों के लिए दूध देने वाली
उन दो बकरियों को, जिनके एवज में
गिरवी गए थे, मेरी पत्नी के सारे गहने

इंतजार करूँ, कि वो आएं
और मैं उनके सुपुर्द कर दूँ
अपनी माओं-बहनों-बेटियों की आबरु

इंतजार करूँ, कि वो आएं
और मैं अपनी जमीन, अपना जंगल
उस सरकार को दान दे दूँ , जिसका
यथार्थ से कोई, सरोकार नहीं
लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा
बसाया गया श्मसान
जहाँ अब लोगों का ही कुछ नहीं रहा

ए बाबू...
एक बात जान लो
मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरी माएँ-बहनें-बेटियाँ
मेरा जंगल, मेरी जमीन
किसी के बाप की जागीर नहीं हैं

तुम्हारे बंदूकों की गोलियाँ अगर भेद करना नहीं जानतीं
तो उन्हें भी दो ट्रेनिंग
देशवासी और दशद्रोही में फ़र्क करने का
वरना मेरी बंदूक, और उसकी गोलियाँ...

आगे... पता नहीं...

- मनीष कुमार यादव