दिन रात टूटते हैं सपने, सपनों का क्या है
बात-बात पे छूटते हैं अपने, अपनों का क्या है
खोखली हंसी से ढाँपते हैं हम, ज़ख्म-ए-जिंदगी
गहरे, छिछले, सब भरेंगे, ज़ख्मों का क्या है...
बात-बात पे छूटते हैं अपने, अपनों का क्या है
खोखली हंसी से ढाँपते हैं हम, ज़ख्म-ए-जिंदगी
गहरे, छिछले, सब भरेंगे, ज़ख्मों का क्या है...