ग़ज़ल

मिल्कियत की चाह में आवाम है बहुत
मुफलिसी का दौर देखो काम है बहुत
दिल्ली तुम्हारी देखकर मायूस हो गए
थोड़ी है ज़िन्दगी, कत्ल-ए-आम है बहुत
उम्मीद थी एक सुबह सी जब घर से चले थे
आ के इधर देखते हैं शाम है बहुत
इंसानियत की कीमतें तो कौड़ियों के मोल है
शक्ल के हिसाब का अब दाम है बहुत
कुछ ज़िन्दगी में बन सको तो बन लो अब 'मनीष'
यहाँ प्यार करने वाले तो बदनाम हैं बहुत।

-मनीष
26/05/2015