अब वो दिन तलाश...

ये न सोच किसी रोज़ तुझे भूल जाउंगा
अब वो दिन तलाश जिस दिन तुझे मैं याद न आऊं...
     - मनीष कुमार यादव

सज़ायाफ्ता...

कभी पास होने की खुशी
कभी दूर होने का ग़म
कुछ ख़्वाहिशों से भी ज़्यादा
कुछ ज़रूरत से भी कम

ममता भरी कुर्बानियों में लालच सी भूख
सद्भावना के कर्तव्य में दुर्भावना की बू
सेवा के धर्म में शोषण का पाप
जलता हुआ मन, ज़िंदगी राख़...

सारे रास्ते खुले हैं
कहीं सुकून-ओ-पनाह नहीं है
अकेला ही बढ़ चला हूं अब
कोई हमराह नहीं है

बेनाम-बदनाम हूं
बद-चलन, बे-रास्ता हूं
तुम समझते हो ज़िंदा हूं?
कैद-ए-बा-मशक्कत, सज़ायाफ्ता हूं...

समाज के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा


ज़िंदगी करवटें बदलेगी भी तो कितनी
दिन की शुरुआत तो अंगार से ही होनी है
एक वक्त था हम भी ईश्वर को याद करते थे हर सुबह
मगर बाद में हमारा ईश्वर बदल गया
और आज उसके चले जाने के बाद
दिन की शुरुआत फिर भी अंगार से होती है

फर्क बस इतना है मेरे दोस्त
तब हमारे हाथों में अगरबत्तियों की अंगार होती थी
और अब, सिगरेट की अंगार होती है

मैं आज भी इसी कश्मकश में हूं
कि अपना ईश्वर किसे मानूं
और, अगरबत्तियों और सिगरेट की अंगारों में
समाज के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा कौन सी चीज़ है?

                             - मनीष कुमार यादव

भला कौन?

मेरे मायूस चेहरे की जिम्मेदारी देते वक्त
उसने ये क्यूं नहीं सोचा
उसकी बे-वफाई का जिम्मेदार
भला कौन है?
        - मनीष कुमार यादव

संसार इंसानों की भारी कमी से जूझ रहा है

ज़िन्दगी में दर्द तो बहुत बढ़ा है इन दिनों...
कभी सोचता हूं उसे कह डालूं हाल--दिल
लेकिन तभी याद आते हैं उसके दर के बन्द दरवाज़े
..."
वहां सुनवाई नहीं होनी" - का असमंजस ही
रोक लेता है उठे कदम...
सच-
'
संसार इंसानों की भारी कमी से जूझ रहा है'!

कहाँ हो...?

तुम्हारी यादों की आग ने जलाकर खाक कर दिया दिल,
आंसू मिले हैं इतने, कि जिस्म नहीं जलता
आँखें, इंतज़ार में अब तक रस्ता देख रहीं हैं
कहाँ हो तुम...?