(श्री लीलाधर मंडलोई की कविता “ओबामा के रंग में यह कौन है?” के जवाब में.)
ओबामा के रंग में ये वो है
जिसे हम कभी भी होने नही देना चाहते थे, शायद
न अपने पास, और ना उनके पास
जो शहरों में बसते हैं, हमारे अपने
मगर शायद सबसे बड़ा पेंच भी यही है
की हमें अपने लाल झंडे के साथ-साथ
हमारे ऐशो-आराम भी चाहिए थे
हमें चाहिए था कि हम अपनी मर्सेडीज़ भी रखें
और साथ रखें अपने लाल झंडे को भी
मगर शायद किसी को भी पता नही था
कि मर्डोक का मारा लाल झंडा
डोमिनो के ऊपरी कोने पे जा अटकेगा
मेरे घर तो वो झंडा आज भी मेरी साँसों में है
मगर शहर के परिजन शायद अब भूल चुके हैं सबकुछ
वो भूल गए हैं कि उन्हें उस झंडे को
कहाँ रखना चाहिए था, दर-असल
उन्होंने तो झंडे को ये सोच कर ऊपर लगाया होगा
कि वो वहाँ से दुनिया को अपनी उपस्थिति का आभास कराएगा
मगर इसी मासूम सोच के चलते सब गच्चा खा गए
हम भी, हमारे परिजन भी
अब क्या करें
किसी की भी समझ से परे है
इसीलिए लाल झंडे के वहाँ होने का मामला
आज भी पेंडिंग है
संसद के बाहर भी
और संसद में भी
जो मेरे हाथ में है, उसे देखने पर
सरकार अब मुझे नक्सलवादी कहती है....
- मनीष कुमार यादव