उनके लिए लाया गया वो लाल गुलाब
आज भी पड़ा है
मेरे कमरे में...
किसी के कोमल हाथों का स्पर्श पाने के इंतज़ार में
उसकी एक-एक पंखुड़ी
मुरझा गयी है
मेरे अरमानों की तरह...
गुलाब में लगी पत्तियां
बेकरार हैं
कि कब कोई आएगा और उन्हें छूकर
फिर से कर देगा जीवित
मेरी बेकरार नज़रों की तरह...
और, वो डंठल
जो आधार है हमारे रिश्ते की परिभाषा का
मेरा अमिट अमर प्रेम...
वो भी मुरझा कर, सूख कर
अब टूटने की कगार पर है...
सब कुछ मुरझा गया है
संसार, मौसम
नदी-पर्वत-पेड़ों का बना
ये जंगल...
...मेरा दिल...
...और एक तुम्हारी याद है कि
जेहन में अब तक ताज़ा है...
- मनीष कुमार यादव
- मनीष कुमार यादव