ज़िंदगी के बहुत सारे मायने...

चारों तरफ वीरान है
ज़िंदगी हैरान है
तुम, मैं, और हम सब कमोबेश परेशान हैं।
सब परेशान हैं
हवाएं, साँसें, रूहें
नज़ारे, नज़रें, आँखें
सूरज, चाँद, तारे... सब
तंगहाली, बदहवासी, बेहोशी
पसरे हैं चारों ओर
और आलम-ए-मातम
मौत से भी बदतर है
ज़िंदगी को खुद के लिए इतना छटपटाते
पहले कभी नहीं देखा
मौत को खुद से इतना दूर भागते
पहले कभी नहीं देखा
ज़िदगी और मौत की इस जद्दोजहद में
मैं, आप, हम सब
बहुत बुरी तरह पिस रहे हैं
तुम्हारे इश्वर ने पकड़ा था उस दिन मुझे
जब मैं अकेला घूमने निकला था
कहाँ, पता नहीं
पूछने लगा तुम यहाँ अकेले ???
मैंने कहा - तुम साथ तो हो फिर मैं अकेला कहाँ ? तुम्हारा ईश्वर लजा गया
अपने ही सवाल से
और मुझे उसकी हैसियत समझ में आ गयी
तब से मैं नास्तिक हूँ
वो बाद में फिर मुझे मिला एक दिन
फिर वही सवाल
फिर वही जवाब
और इस बार तुम्हारा इश्वर भड़क गया
अब पता नहीं कब मिलेगा
कमबख्त बात करने वाला भी कोई नहीं बचा !!!
बहुत सारे मायनों के बीच
बहुत सारे संबंधों के बीच
बहुत सारे सपनों, अंधेरों, उजालों के बीच
फंस गया हूँ मैं
न कोई रास्ता दिखता है
न कोई राहगीर
न ज़िन्दगी पास आती है, न मौत...
सारी वीरानियाँ समेट कर
दफ़्न हो जाना चाहता हूँ कहीं
ताकि पूरी कायनात में
कही कोई खामोशी न बचे
और उस जिंदादिली में
तुम्हारा इश्वर
मेरी तन्हाई
सारी उम्मीदें
सारे सपने
अँधेरे, उजाले
हवाएं, साँसें, रूहें
नज़ारे, नज़रें, आँखें
सूरज, चाँद, सितारे
सब विलीन हो जाएँ...
मनीष
14/11/2013

किसी को क्या फर्क पड़ता है?

भरी सड़क पर खड़ा वो मदारी वाला
और उसके हाथों में
साथ चल रहे बन्दर के फंदे की डोर।

अपना सा लग रहा है मंज़र
मैं बेचैन हूँ
उस बन्दर की तरह
ईधर उधर खोज रहा हूँ
आज़ाद हो पाने की
उम्मीद की एक किरण भर।

मेरी मोहब्बत, वो फंदा है
जिससे लगी डोर
तुम्हारी यादों के कब्ज़े में है
जब जिधर चाहती हैं, नचाती हैं।

सिगरेट के धुंए से निकलता ज़हर
धडकनों में घोल रहा है ज़िन्दगी
और मैं जीने की कोशिश करता हुआ
मौत के इंतज़ार में हूँ ।

मदारी का खेल जारी है
गाड़ियां चली जा रही हैं
लोग पल दो पल रुक कर
फिर बढ़ जाते हैं आगे।

तुम खुद भी तो उसी भीड़ का हिस्सा हो...

किसी को क्या फर्क पड़ता है?


- मनीष कुमार यादव

हंसी उनके लबों की...

जिनके तसव्वुर में ता-उम्र फ़ना रहिए,
अब हंसी उनके लबों की, क्या कहिये...

छोड़कर बढ़ चले, पलट कर देखा भी नहीं
उनका भगवान रहे उनके साथ, दुआ कहिए...!!!
 - - मनीष कुमार यादव

आगे... पता नहीं...

क्या मेरा यही कर्तव्य है
कि चुपचाप बैठा रहूँ अपनी झोपड़ी में
इंतज़ार करूँ, कि फ़ौजें आ धमके मेरे घर में

इंतजार करुँ, कि वो आएं, और
मेरे छत की पुआल बने
चुल्हा बनाई गई मेरी मड़ई का इंधन
उनकी मीट-भात-दारू की पार्टी को दान कर दूँ
मेरे बच्चों के लिए दूध देने वाली
उन दो बकरियों को, जिनके एवज में
गिरवी गए थे, मेरी पत्नी के सारे गहने

इंतजार करूँ, कि वो आएं
और मैं उनके सुपुर्द कर दूँ
अपनी माओं-बहनों-बेटियों की आबरु

इंतजार करूँ, कि वो आएं
और मैं अपनी जमीन, अपना जंगल
उस सरकार को दान दे दूँ , जिसका
यथार्थ से कोई, सरोकार नहीं
लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा
बसाया गया श्मसान
जहाँ अब लोगों का ही कुछ नहीं रहा

ए बाबू...
एक बात जान लो
मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरी माएँ-बहनें-बेटियाँ
मेरा जंगल, मेरी जमीन
किसी के बाप की जागीर नहीं हैं

तुम्हारे बंदूकों की गोलियाँ अगर भेद करना नहीं जानतीं
तो उन्हें भी दो ट्रेनिंग
देशवासी और दशद्रोही में फ़र्क करने का
वरना मेरी बंदूक, और उसकी गोलियाँ...

आगे... पता नहीं...

- मनीष कुमार यादव

बाकी सबकुछ

दिल्लगी, रुसवाई, बेवफाई और बेहयाई
बाकी सबकुछ हुआ, इकरार-ए-मोहब्बत के सिवा...

वफा-ए-ज़िंदगी से...

वफा-ए-ज़िंदगी से हमने कब, क्या पाया,
जो छोड़कर चला गया, वो फिर नहीं आया...

दिन रात टूटते हैं सपने...

दिन रात टूटते हैं सपने, सपनों का क्या है
बात-बात पे छूटते हैं अपने, अपनों का क्या है
खोखली हंसी से ढाँपते हैं हम, ज़ख्म-ए-जिंदगी
गहरे, छिछले, सब भरेंगे, ज़ख्मों का क्या है...

बातें नहीं थमतीं...


बढ़ती ही चली जाती हैं ये सांसें नहीं थमतीं,
तुम्हारी याद जब आती है फिर आंखें नहीं थमतीं
यूं तो हर कोई सिमट जाता है चंद किस्सों के बाद,
तुम्हारी बात जब खुलती है फिर बातें नहीं थमतीं

हम भी हुए बावले बड़े, सौगात-ए-इश्क पर,
ये भूलकर कि आजकल, सौगातें नहीं थमतीं...

उनका क्या .............?

ज़िन्दगी होले होले से अपनी मौत की ओर बढ़ रही है,
मैं इस गलतफहमी में हूँ की मैं अभी और जियूँगा
तुमको मेरा ये कहना हो सकता है रास न आये
पर जो आमादा हैं मुझे देखने को
तड़पता, सिसकता, अपने आप से जूझता,
उनका क्या .............?