स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर
दिल्ली के लोगों को देखकर मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ
उनको तिरंगे रूपी पतंग उड़ाते देखकर
जी भर हंसने का मन करता है
या फिर जी भर रो लेने का
कैसी बदनसीब है मेरे देश की राजधानी
ज़िंदगी में हर संभव रफ़्तार से तेज
दौडती भागती दिल्ली:
वही दिल्ली, जो मेरे देश की राजधानी है
वही दिल्ली, जंहा के लोग
विदेशी कंपनियों के गुलाम हैं
या खाप जैसी मानसिकताओं के गुलाम हैं
या हिंदू मुसलमान में भेद करना जानते हैं
या फिर देश के नेताओं जैसे शरीफ लोगों की
हर सफल योजना के लाभार्थी हैं
विश्वास मानिए
दिल्ली के लोगों को देखकर
आपका भी मन होगा
जी भर हंसने का
या फिर, जी भर रो लेने का
मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ
कि तमाम दिशाओं से अपने लिए
दरवाज़े बंद रखने वाले लोगों की
खुशियों का शहर बन गयी है दिल्ली
तिरंगे रूपी पतंग की वो डोर
जिसे वो अपने सिरे से पतंग को हवा में
अनाथ बेसहारा और बेलगाम छोड़कर
खुश होते हैं
इतने खुश, कि वो भूल जाते हैं
अपने सारे बंधन, सारे विचार, सारी मानसिकताएं
और तभी हम ‘जय हिंद’ से ज़्यादा ‘हैप्पी इंडिपेंडेंस डे’ सुन पाते हैं
इन दिनों भारत कि ‘स्वतंत्रता’ भी तो ‘ग्लोबल’ हो गयी है
मगर उस दिन दिल्ली क्या करेगी
जब खत्म हो जायेंगे कागज़
या खाप, या हिंदू मुसलमान
बड़ा सवाल है कि
क्या दिल्ली कभी अपने आपको उस पतंग की तरह उड़ाकर छोडेगी
उन्मुक्त, स्वच्छंद?
बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण जवाब है- शायद नही!
क्यूंकि स्टॉक मार्केट में थोड़ी सी उछाल पाने के बाद
दिल्ली डरती है कि
वो औंधे मुह गिर पड़ेगी
और तब भारत आज़ाद नहीं रह पायेगा!
- - मनीष कुमार यादव