हां, मैं देशद्रोही हूं...

तुम तब देशद्रोह नहीं करते
जब मेरे देशवासियों की कमाई लूटते हो
तुम तब देशद्रोह नहीं करते
जब दूजों के हक पर टूटते हो

तुम तब देशद्रोह नहीं करते
जब किसी आंगनबाड़ी में
नौकरी दिलाने की खातिर
उस गरीब महिला का चीर-हरण करते हो

देशद्रोह तो तब भी नहीं होता
जब तुम किसी की जान-माल का
सौदा कर डालते हो, निरा-बेफिक्र...
महज़ इसलिए कि सामने वाला
अमूक धर्म-जाति-सम्प्रदाय का है

मगर मैं बताऊं
तुम्हारे राज मे मैं
बा-फक्र कहता हुं
मैं देशद्रोही हूं

हां, मैं देशद्रोही हूं

क्यूंकि तुम्हारे राज में
हर वो इंसान देशद्रोही है
जो तुम्हें तुम्हारी औकात दिखाने का
माद्दा रखता हो.
 
*कार्टूनिस्ट असीम को समर्पित।

- मनीष कुमार यादव

रक़ीब की कश्ती...

रक़ीब की कश्ती संवरती तो हमें भी ऐतराज़ नहीं था, मगर,
आलम-ए-ग़म यूँ है कि जिधर वो बढ़ रहे हैं,
उधर ठोकरें बहुत हैं,
और इनसान... बहुत कम !
             
                - मनीष कुमार यादव 

य़ाद आ रहा है...


अपने कमरे में बैठा हूं, और
मेरी तन्हाई का साथ दे रहा है
सुलगती सिगरेट से निकलता धुंआ...

ज़िंदगी भी कहां-कहां से अर्थ ढूंढ लाती है
एक कश लगाने के बाद मैं
सिगरेट की दूसरे सिरे की राख देखता हूँ

आग, जिसे तपा नहीं पाती,
उसे राख कर देती है...

दूसरे कश के बाद
फिर नज़र जाती है
सिगरेट के राख वाले सिरे पर
थोड़े से पानी से भरे ऐश-ट्रे में
उसे झटका देकर गिरा देता हूँ...

छस्स्स.... सी आवाज़, इस बात का एहसास कराती है,
कि उस राख में आग, अब भी बाक़ी थी
मर जाने से, ऐन पहले तक...

राख तो मैं पहले हो चुका हूँ.

याद आ रहा है, तेरा प्यार...

           - मनीष कुमार यादव 

गलत कहते हैं...

गलत कहते हैं जो ये कहते हैं वफ़ा रंग लाती है
देखो की वजह-ए-वफ़ा मैं बेरंग फिरता हूँ...
                                            
                                         - मनीष कुमार यादव

अब वो दिन तलाश...

ये न सोच किसी रोज़ तुझे भूल जाउंगा
अब वो दिन तलाश जिस दिन तुझे मैं याद न आऊं...
     - मनीष कुमार यादव

सज़ायाफ्ता...

कभी पास होने की खुशी
कभी दूर होने का ग़म
कुछ ख़्वाहिशों से भी ज़्यादा
कुछ ज़रूरत से भी कम

ममता भरी कुर्बानियों में लालच सी भूख
सद्भावना के कर्तव्य में दुर्भावना की बू
सेवा के धर्म में शोषण का पाप
जलता हुआ मन, ज़िंदगी राख़...

सारे रास्ते खुले हैं
कहीं सुकून-ओ-पनाह नहीं है
अकेला ही बढ़ चला हूं अब
कोई हमराह नहीं है

बेनाम-बदनाम हूं
बद-चलन, बे-रास्ता हूं
तुम समझते हो ज़िंदा हूं?
कैद-ए-बा-मशक्कत, सज़ायाफ्ता हूं...

समाज के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा


ज़िंदगी करवटें बदलेगी भी तो कितनी
दिन की शुरुआत तो अंगार से ही होनी है
एक वक्त था हम भी ईश्वर को याद करते थे हर सुबह
मगर बाद में हमारा ईश्वर बदल गया
और आज उसके चले जाने के बाद
दिन की शुरुआत फिर भी अंगार से होती है

फर्क बस इतना है मेरे दोस्त
तब हमारे हाथों में अगरबत्तियों की अंगार होती थी
और अब, सिगरेट की अंगार होती है

मैं आज भी इसी कश्मकश में हूं
कि अपना ईश्वर किसे मानूं
और, अगरबत्तियों और सिगरेट की अंगारों में
समाज के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा कौन सी चीज़ है?

                             - मनीष कुमार यादव

भला कौन?

मेरे मायूस चेहरे की जिम्मेदारी देते वक्त
उसने ये क्यूं नहीं सोचा
उसकी बे-वफाई का जिम्मेदार
भला कौन है?
        - मनीष कुमार यादव

संसार इंसानों की भारी कमी से जूझ रहा है

ज़िन्दगी में दर्द तो बहुत बढ़ा है इन दिनों...
कभी सोचता हूं उसे कह डालूं हाल--दिल
लेकिन तभी याद आते हैं उसके दर के बन्द दरवाज़े
..."
वहां सुनवाई नहीं होनी" - का असमंजस ही
रोक लेता है उठे कदम...
सच-
'
संसार इंसानों की भारी कमी से जूझ रहा है'!

कहाँ हो...?

तुम्हारी यादों की आग ने जलाकर खाक कर दिया दिल,
आंसू मिले हैं इतने, कि जिस्म नहीं जलता
आँखें, इंतज़ार में अब तक रस्ता देख रहीं हैं
कहाँ हो तुम...?

याद रहेगा वादा...

अब तक बड़ा बेचैन था, किसी की बेरुखी-ओ-बेदिली से
उसने महज़ आज़माने से, कुछ ज़्यादा तो किया
कल से ज़रा सुकून से हूं, कि रुला रखने का ही सही
सितमगर ने मुझसे कोई वादा तो किया...


              - मनीष कुमार यादव 

मोहब्बत बारिश है

मोहब्बत बारिश है
जिसे छूने की ख्वाहिश में फैली हथेलियाँ
वो पा लेती हैं
जिसे बारिश से भागता हुआ कोई भी इंसान
कभी नहीं पा सकता

चमकती आँखें देखती हैं
सामने वाले की आँखों में वो चमक
जिसे और कोई नहीं देख सकता

कौन कहता है हाथ खाली रह जाते हैं?

प्रेयसी की याद में भींगते हुए उस प्रेमी पर एक नज़र डालो
संभावनाओं के अनंत आकाश की ओर नज़रें टिकाये,
दोनों बाहें फैलाए-

बरसो मेघा, अविरल बरसो... 

                       - मनीष कुमार यादव 

तू माना करे तो मैं भी हर बात माना करूँ...

तेरी वफ़ा, ना-वफ़ा सब देख ली है अब तक
अच्छा है न तेरी गली आना-जाना करूँ
क्या कहूँ तुझसे और कितनी सुनूं तेरी
तू माना करे तो मैं भी हर बात माना करूँ...

             - मनीष कुमार यादव

प्यार का पहला खत


उनके लिए लाया गया वो लाल गुलाब
आज भी पड़ा है
मेरे कमरे में...

किसी के कोमल हाथों का स्पर्श पाने के इंतज़ार में
उसकी एक-एक पंखुड़ी
मुरझा गयी है
मेरे अरमानों की तरह...


गुलाब में लगी पत्तियां
बेकरार हैं
कि कब कोई आएगा और उन्हें छूकर
फिर से कर देगा जीवित
मेरी बेकरार नज़रों की तरह...

और, वो डंठल
जो आधार है हमारे रिश्ते की परिभाषा का
मेरा अमिट अमर प्रेम...
वो भी मुरझा कर, सूख कर
अब टूटने की कगार पर है...

सब कुछ मुरझा गया है
संसार, मौसम
नदी-पर्वत-पेड़ों का बना
ये जंगल...
...मेरा दिल...

...और एक तुम्हारी याद है कि
जेहन में अब तक ताज़ा है...


      - मनीष कुमार यादव

आँखों का तारा

किसी को आँखों का तारा बना लो
फिर वो टिमटिमाने से मना कर दे
तो दिल में बड़े अंदर तक चुभता है...

            - मनीष कुमार यादव

दिल्ली की आजादी



स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर
दिल्ली के लोगों को देखकर मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ

उनको तिरंगे रूपी पतंग उड़ाते देखकर
जी भर हंसने का मन करता है
या फिर जी भर रो लेने का
कैसी बदनसीब है मेरे देश की राजधानी
ज़िंदगी में हर संभव रफ़्तार से तेज
दौडती भागती दिल्ली:

वही दिल्ली, जो मेरे देश की राजधानी है
वही दिल्ली, जंहा के लोग
विदेशी कंपनियों के गुलाम हैं
या खाप जैसी मानसिकताओं के गुलाम हैं
या हिंदू मुसलमान में भेद करना जानते हैं
या फिर देश के नेताओं जैसे शरीफ लोगों की
हर सफल योजना के लाभार्थी हैं

विश्वास मानिए
दिल्ली के लोगों को देखकर
आपका भी मन होगा
जी भर हंसने का
या फिर, जी भर रो लेने का

मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ
कि तमाम दिशाओं से अपने लिए
दरवाज़े बंद रखने वाले लोगों की
खुशियों का शहर बन गयी है दिल्ली
तिरंगे रूपी पतंग की वो डोर
जिसे वो अपने सिरे से पतंग को हवा में
अनाथ बेसहारा और बेलगाम छोड़कर
खुश होते हैं
इतने खुश, कि वो भूल जाते हैं
अपने सारे बंधन, सारे विचार, सारी मानसिकताएं
और तभी हम जय हिंद से ज़्यादा हैप्पी इंडिपेंडेंस डे सुन पाते हैं
इन दिनों भारत कि स्वतंत्रता भी तो ग्लोबल हो गयी है

मगर उस दिन दिल्ली क्या करेगी
जब खत्म हो जायेंगे कागज़
या खाप, या हिंदू मुसलमान

बड़ा सवाल है कि
क्या दिल्ली कभी अपने आपको उस पतंग की तरह उड़ाकर छोडेगी
उन्मुक्त, स्वच्छंद?

बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण जवाब है- शायद नही!

क्यूंकि स्टॉक मार्केट में थोड़ी सी उछाल पाने के बाद
दिल्ली डरती है कि
वो औंधे मुह गिर पड़ेगी
और तब भारत आज़ाद नहीं रह पायेगा!

-                      -    मनीष कुमार यादव