ए बाबू...

क्या मेरा यही कर्तव्य है
कि चुपचाप बैठा रहूँ अपनी झोपड़ी में
इंतज़ार करूँ, कि फ़ौजें आ धमके मेरे घर में
इंतजार करुँ, कि वो आएं, और
मेरे छत की पुआल बने
चुल्हा बनाई गई मेरी मड़ई का इंधन
उनकी मीट-भात-दारू की पार्टी को दान कर दूँ
मेरे बच्चों के लिए दूध देने वाली
उन दो बकरियों को, जिनके एवज में
गिरवी गए थे, मेरी पत्नी के सारे गहने
इंतजार करूँ, कि वो आएं
और मैं उनके सुपुर्द कर दूँ
अपनी माओं-बहनों-बेटियों की आबरु
इंतजार करूँ, कि वो आएं
और मैं अपनी जमीन, अपना जंगल
उस सरकार को दान दे दूँ , जिसका
यथार्थ से कोई, सरोकार नहीं
लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा
बसाया गया श्मसान
जहाँ अब लोगों का ही कुछ नहीं रहा
ए बाबू...
एक बात जान लो
मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरी माएँ-बहनें-बेटियाँ
मेरा जंगल, मेरी जमीन
किसी के बाप की जागीर नहीं हैं
तुम्हारे बंदूकों की गोलियाँ अगर भेद करना नहीं जानतीं
तो उन्हें भी दो ट्रेनिंग
देशवासी और दशद्रोही में फ़र्क करने का
वरना मेरी बंदूक, और उसकी गोलियाँ...
तुम्हें हर संभव जवाब देने में
सक्षम हैं।

05.05.2015

मैं सपने में हत्याएँ करता हूँ

मैं सपने में हत्याएँ करता हूँ
मैं जानता हूँ
हत्याएं करना अच्छी बात नहीं है
शायद इसलिए मैं देख नहीं पाता
कि मेरी हत्याओं का भुक्तभोगी कोन है
ठीक-ठीक कुछ भी, चिन्हित नहीं होता
मगर साथ ही
मैं यह भी जानता हूँ
कि मैं किसी व्यक्ति विशेष की
हत्या की नीयत नहीं रखता
मैं चाहता हूँ करना विद्रोह
और ख़त्म कर देना चाहता हूँ
दुनिया भर की
सारी विसंगतियां, सारी कुंठाएं
सारा लोभ, सारी नफ़रत
और वो सबकुछ, जो हमें
एक अदद इंसान बनने से

दूर रखती है।

05.05.2015

मैं सोचता हूँ

मैंने देखा है तुम्हें
निहत्थों पर गोलियां बरसाते हुए
पूरी निर्ममता, बर्बरता और
कथित ईमानदारी के साथ

मगर एक दिक्कत है
गोलियां बरसाते हुए तुम
शायद ही कुछ सोचते हो
क्योंकि तुम्हारी गोलियों के चलने से
साबित तो  बस यही होता है
तुम तो यह भी नहीं सोचते
कि तुम्हारी सोच
कुछ ऐसों के कब्ज़े में है
जो शायद ही कभी कुछ सोचते हैं

तुम चाहो तो इसे ईमानदारी न कहो
मगर मेरा न्याय और मेरी इच्छा
दोनों ही इसकी पूरी गवाही देते हैं

मैं चाहूँ तो कर सकता हूँ
एक वार के बदले कई वार
छलनी कर सकता हूँ तुम सबका सीना
एक गोली के जवाब में कई गोलियों से

मगर फिर एक दिक्कत है
वो ये, कि मैं सोचता हूँ
हाँ, मैं सोचता हूँ
तुम्हारे आगे-पीछे के लोगों के बारे में
तुम्हारे भूत-वर्तमान-भविष्य के बारे में
और फिर रुक जाता हूँ
गोली चलाने से ठीक पहले
इसलिए नहीं, कि मुझमें
ताकत या हिम्मत नहीं है
बल्कि सिर्फ इसलिए
कि मेरी सोच
किसी के कब्ज़े में नहीं है।

05.05.2015


कई कोशिशें कीं, कोई अपना नहीं मिला

कई कोशिशें कीं, कोई अपना नहीं मिला
कभी इत्मिनान से सोचेंगे, मोहब्बत से क्या मिला

महफिल में जब हो ही गए अरमां पराए सारे
शिकवा किसी से क्या करें, किसी से क्या गिला

हर शख़्स अपनी दुनिया में है दुनिया से बेख़बर
जो मिल ही गया किसी मोड़ पर, तो क्या मिला...


08.12.2014

दिल तो कहीं और है

दिल तो कहीं और है
अनाथ छोड़ रखा है रकीब ने
अपनी दुनिया के किसी परित्यक्त कोने में
जहां वो शायद कभी नहीं जाते
और जब भी कभी भूले-भटके
उधर से गुज़र भी जाते हैं
तो दिल धड़क उठता है
और इसी से मैं ज़िंदा हूँ
दुनिया तो अपने हिस्से की साँसें
कब की हमसे छीन चुकी....


11.12.2014

बस तुम मिले, हम जहां जहां गए

कभी मंदिर गए, कभी मैकदा गए
तुमको ढूँढने जाने कहाँ कहाँ गए
सारी कायनात में छायी है तुम्हारी खुशबू
बस तुम मिले, हम जहां जहां गए

26.12.2014

मैं कुत्ते की दुम...

मैं हिन्दू, मैं मुसलमान
मैं ईसाई, मैं जैन
मैं सिख, मैं बोडो
मैं भगवान, मैं हैवान
मैं मालिक, मैं नौकर
मैं चोर, मैं चुहाड़
मैं चमार, मैं सियार
मैं इंसान?
मैं कुत्ते की दुम...


26.12.2014

समझ से परे है...

1.

वो भी कहते हैं
अपनी यारी काबिल-ए-मिसाल है
जो अगर आप मर भी रहे हों
एक बूँद पानी तक नहीं पूछते।

2. 


वो कहते हैं की दोस्त ज़रूरी होते हैं
मैंने कहा दोस्त ज़रूरी होते हैं
ज़रूरतों के लिए नहीं, ज़िंदगी के लिए
मैं समझ नहीं पाया कि
दोस्ती की मेरी परिभाषा गलत है
या दोस्ती के उनके मायने

3. 


वो नहीं आये मेरे साथ मेरी ज़रूरत पर
देते रहे हवाला
दुनियादारी, अनुभव और मोहब्बत जैसी चीज़ों का
गोया मुझे इनसे परहेज हो

4. 


खुद को गुवेरा, मुक्तिबोध, मार्क्स
और विद्रोही की कड़ी का हिस्सा मानने वाले ये दोस्त
चाहते हैं दूर रखना अपनी ज़िन्दगी को
विचारधारा और आन्दोलन के साए से भी

5. 


वो ये भूल गए हैं कि
आन्दोलन और विचारधारा में निजी कुछ नहीं होता
ज़रूरत दोस्ती नहीं होती
क्रांति, दुनियादारी, अनुभव और मोहब्बत
सब आते हैं
बहस और फेरबदल के दायरे में

मैं कौन सी क्रांति का लोहा मानूं ?
और कौन सी दोस्ती में रखूँ भरोसा ?

समझ से परे है...

21.12.2013

बना रक्खा है भरम...

बना रक्खा है भरम कि ज़िन्दगी हसीन है
उसपर भी बेतरतीब आज़माइश हो रही है
सांस लेने की भी फुरसत नहीं होती
पूरी उम्र जीने की ख्वाहिश हो रही है
जिसके लिए जीते रहे हर लम्हा अब तलक
उनसे ही मेरी मौत की फरमाइश हो रही है
तलाश रहे हैं जो मौका कुछ कर गुजरने का मनीष
हर सिम्त उनको रोकने की साज़िश हो रही है


01.09.2015

दिलदार-ए-अदद नहीं मिला

खूब चैन-ओ-अमन समझते रहे दौलत में
कुछ भी नहीं रहा हम जो नहीं पाए
फ़क़त एक दिलदार-ए-अदद नहीं मिला
बार-ए-तन्हाई हम ढो नहीं पाए
हमसे रूठा ही रहा ताउम्र हमारा नसीब
रु-ब-रु-ए-एहसास-ए-इश्क़ हो नहीं पाए
इल्म उनको नहीं इस बात का मनीष
उनकी यादों की वजह, सो नहीं पाये


05.09.2015

कुछ यूं हुआ...

कुछ यूं हुआ कि छोटी सी रवानी पे लड़ गए
कभी कुर्-आन कभी रामायण की कहानी पे लड़ गए
जिनको लड़ना था अस्मत-ए-मादर-ए-हिन्द के लिए
बाग-ए-कश्मीर में बारूद की बागानी पे लड़ गए
सिखाते रह गए जिनको हम वफ़ा-ए-फ़र्ज़
देखिये एक बेवफा की जवानी पे लड़ गए
खुद उनके दामन रहे हमेशा ही दागदार
जाने किस हक़ हमारी कारिस्तानी पे लड़ गए
कर दिया सरकार ने जब सारा जहां खराब
हम एक दूसरे से उनकी मनमानी पे लड़ गए


03.09.2015

कहाँ है वतन, कहाँ राह-ए-अमन है

कैसे कहें किसकी नीयत में क्या दफ़न है
किसी के सर पे सेहरा, किसी के सर कफ़न है
हमारी रोटियां लूटने वालों के महल देखिये
इसी शहर कहीं मातम, कहीं जशन है
दूर तड़ीपार हुआ इंकलाबी कहता है
यहां ज़िन्दगी ज़िन्दगी की दुश्मन है
पूछता रहा हर मिलने वाले शख्स से मनीष
कहाँ है वतन, कहाँ राह-ए-अमन है


31/08/2015

ज़िन्दगी में ज़िंदगी से महरूम जी रहे हैं

उनकी इनायत है जो यूं बे-सुकून जी रहे हैं
ज़िन्दगी में ज़िंदगी से महरूम जी रहे हैं
एक दिन की दिल्लगी रखने वाले ज़रा देख
तुम बिन भी हम यहाँ, बा-जुनून जी रहे हैं

24.10.2015

... सो गयी है क्रांति

समंदर की गहराई
और काली रात के घुप्प अँधेरे में
मौत से भी बदतर
अटूट नींद में
सो गयी है क्रांति।


तुम्हारा देश
तुम्हारी दुनिया
तुम्हारी ज़िन्दगी
तुम्हारी मौत
तुम्हें मुबारक हों।

मैं लिंकन के भूत से लेकर
लूथर किंग, और मार्क्स के साथ
एक सम्मलेन पर निकल रहा हूँ।

जब तक क्रांति को जगाने का
मसौदा तैयार होगा
सब कुछ ख़त्म हो चुका होगा..

29.11.2013